मोबाइल गेम्स की लत से बच्चों को कैसे बचाएं? – संध्या की कहानी

संध्या हमेशा की तरह ऑफिस से थकी-हारी घर लौटी थी। दरवाज़ा खोला तो देखा उसका 9 साल का बेटा अर्णव, आंखों में चमक और हाथ में मोबाइल लिए, उसी गेम में डूबा हुआ है जो पिछले कुछ महीनों से उसका सबसे बड़ा साथी बन चुका था। न नमस्ते, न मुस्कान – बस उंगलियां मोबाइल स्क्रीन पर तेज़ी से दौड़ रही थीं।

पहले यह सब संध्या को आम बात लगती थी – “चलो, बच्चा घर में है, बाहर की बुरी संगत से दूर है”, उसने खुद को तसल्ली दी थी। लेकिन अब हालात बदलने लगे थे। अर्णव अब न पहले जैसी बातें करता था, न बाहर खेलता था, और न ही पढ़ाई में मन लगता था। उसकी आंखें थकी हुई लगतीं, खाना आधा छोड़ देता और मोबाइल के बिना गुस्से में आ जाता।

एक दिन स्कूल से फोन आया – “अर्णव क्लास में ध्यान नहीं दे रहा, हर समय थका हुआ सा रहता है।” संध्या को लगा जैसे किसी ने ज़ोर से झकझोर दिया हो। अब वह समझ चुकी थी कि अर्णव मोबाइल गेम्स की लत का शिकार हो गया है।

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उस रात संध्या ने अर्णव के पास बैठकर उससे कोई डांट नहीं की, न ही मोबाइल छीना। उसने बस पूछा, “बेटा, तुम्हें यह गेम इतना अच्छा क्यों लगता है?” अर्णव ने पहली बार खुलकर बताया – “मुझे वहां जीतने का एहसास होता है, वहां सब मेरे जैसे हैं, मुझे कोई डांटता नहीं, कोई मुकाबला नहीं करता।”

संध्या ने महसूस किया कि यह सिर्फ एक गेम की बात नहीं है, यह अर्णव की भावनात्मक ज़रूरतों का सवाल है। वह धीरे-धीरे समझने लगी कि सिर्फ मोबाइल छीनने से बात नहीं बनेगी, उसे अपने बेटे की दुनिया में जाना होगा।

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अगले दिन संध्या ने अर्णव को एक सरप्राइज दिया – एक बोर्ड गेम! “चलो, आज हम दोनों खेलते हैं।” अर्णव थोड़ी झिझक के बाद तैयार हो गया। दोनों ने घंटों साथ में खेला, हंसे, और अर्णव की मुस्कान लौट आई। यह सिर्फ एक गेम नहीं था, यह एक रिश्ता था जो फिर से जुड़ने लगा था।

संध्या ने हर दिन कुछ नया सोचा – कभी पेंटिंग, कभी बाहर पार्क जाना, कभी कहानियां पढ़ना। धीरे-धीरे मोबाइल गेम का समय घटता गया और अर्णव का असली बचपन लौटने लगा। अब वह दोबारा दोस्तों के साथ खेलता, कहानियां सुनता और सबसे बड़ी बात – अपनी मम्मी से बातें करता।

संध्या को यह एहसास हो गया था कि मोबाइल गेम्स से बच्चों को बचाना सिर्फ “ना” कहने से नहीं होता, बल्कि “हाँ” कहने के नए रास्ते बनाने से होता है। बच्चों की लत को तोड़ने के लिए उन्हें समझना पड़ता है, उनके साथ वक्त बिताना पड़ता है, और उन्हें यह महसूस कराना पड़ता है कि रियल लाइफ की जीत, मोबाइल गेम्स से कहीं ज़्यादा मज़ेदार होती है।

📌 निष्कर्ष

आज जब मोबाइल हर घर का हिस्सा बन चुका है, तो बच्चों को पूरी तरह इससे दूर करना नामुमकिन है। लेकिन अगर हम चाहें तो उन्हें संतुलित उपयोग सिखा सकते हैं। उन्हें समय, प्यार और संवाद देकर एक बेहतर दिशा दी जा सकती है। याद रखिए, एक साथ बिताया गया समय – किसी भी स्क्रीन टाइम से कहीं अधिक कीमती होता है।

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